25 साल बाद भी उत्तराखंड के आंदोलनकारियों को न्याय का इंतज़ार  

25 साल बाद भी उत्तराखंड के आंदोलनकारियों को न्याय का इंतज़ार  

हमारी पंचायत, देहरादून

रामपुर तिराहा कांड, उत्तराखंड राज्य आंदोलन के सबसे काले अध्यायों में से एक, आज भी न्याय की बाट जोह रहा है। 2 अक्टूबर 1994 को मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहा पर उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार के निर्देश पर दिल्ली जा रहे आंदोलनकारियों पर पुलिस का बर्बर अत्याचार हुआ।

इस कांड में पांच आंदोलनकारियों की मौत, सात महिलाओं के साथ दुष्कर्म और 17 महिला आंदोलनकारियों के साथ अमानवीय अत्याचार के मामले सामने आए। राज्य बनने के 25 साल बाद भी इस मामले में न्याय नहीं मिला, जो हमारे न्यायिक तंत्र की सुस्ती और संवेदनहीनता को दर्शाता है।

इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्देश पर इस मामले की सीबीआई जांच शुरू हुई थी। सीबीआई ने सात केस मुजफ्फरनगर और पांच केस देहरादून की सीबीआई कोर्ट में दाखिल किए। धारा 302, 324 और 326 के तहत चार्जशीट का संज्ञान लिया गया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर 2005 में मुजफ्फरनगर के तत्कालीन जिलाधिकारी अनंत कुमार सिंह सहित सात अन्य के मामले मुजफ्फरनगर कोर्ट में स्थानांतरित कर दिए गए।

इसके बाद से यह मामला ठंडे बस्ते में पड़ा है, और आज तक सुनवाई शुरू नहीं हो सकी। नैनीताल हाई कोर्ट में अब 4 अगस्त को अंतिम सुनवाई प्रस्तावित है, लेकिन इतने वर्षों की देरी के बाद क्या यह सुनवाई वास्तव में न्याय दिला पाएगी, यह सवाल सभी के मन में है।

इस कांड में एक अभियुक्त, सुभाष गिरी, जो वादा माफ गवाह था, की संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। यह घटना भी जांच की दिशा को प्रभावित करने वाली रही। दूसरी ओर, राज्य आंदोलनकारियों को 2004 में तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी के कार्यकाल में 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण देने का आदेश जारी हुआ, लेकिन इसे लागू करने में भी कई कानूनी अड़चनें आईं।

सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में इस मुद्दे पर लंबी कानूनी लड़ाई चली, और 2024 में उत्तराखंड सरकार द्वारा बनाए गए आरक्षण अधिनियम को भी चुनौती दी गई।यह विडंबना है कि एक ओर राज्य आंदोलनकारियों के बलिदान के कारण उत्तराखंड का गठन हुआ, वहीं दूसरी ओर उनके साथ हुए अन्याय का हिसाब आज तक नहीं हुआ।

सरकार और न्यायिक तंत्र की उदासीनता ने आंदोलनकारियों के जख्मों को और गहरा किया है। नैनीताल हाई कोर्ट की आगामी सुनवाई से उम्मीद तो बंधती है, लेकिन यह तभी सार्थक होगी जब दोषियों को सजा मिले और पीड़ितों को न्याय मिले।

सरकार को चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामले में सक्रियता दिखाए और आंदोलनकारियों के लिए आरक्षण जैसे मुद्दों को स्पष्टता के साथ लागू करे। रामपुर तिराहा कांड के पीड़ितों और उनके परिवारों का दर्द केवल कानूनी जीत से ही कम हो सकता है। यह समय है कि उत्तराखंड के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वालों को वह सम्मान और न्याय मिले, जिसके वे हकदार हैं

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