हमारी पंचायत, देहरादून
उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियर झीलों की संख्या और उनके क्षेत्रफल में तेजी से वृद्धि हो रही है। यह जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान वृद्धि का परिणाम है। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के एक अध्ययन के अनुसार, 2015 में उत्तराखंड में 1,266 ग्लेशियर झीलें थीं, जो अब बढ़कर 1,290 हो गई हैं, और इनके क्षेत्रफल में 8.1% की वृद्धि हुई है।

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) ने इनमें से 13 झीलों को उच्च जोखिम वाली (रिस्क लेवल ए) के रूप में चिह्नित किया है, जो ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF) का कारण बन सकती हैं। ये झीलें चमोली, पिथौरागढ़, और उत्तरकाशी जैसे जिलों में स्थित हैं।
जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, और ऊंचाई वाले क्षेत्रों में बर्फ की जगह वर्षा हो रही है। इससे नई झीलें बन रही हैं और मौजूदा झीलों का आकार बढ़ रहा है। कुछ छोटी झीलें आपस में मिलकर बड़ी झीलें बन रही हैं, जबकि कुछ झीलें गायब भी हो रही हैं। 2021-2050 के बीच पहाड़ी क्षेत्रों में वार्षिक औसत अधिकतम तापमान में 1.6-1.9 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि की भविष्यवाणी की गई है, जो इस खतरे को और बढ़ा सकती है ।
उच्च जोखिम वाली 13 झीलें
NDMA ने उत्तराखंड में 13 ग्लेशियर झीलों को उच्च जोखिम वाली श्रेणी में रखा है। इनमें से पांच झीलें विशेष रूप से खतरनाक हैं: वसुंधरा ताल, माबन झील, प्यूंगरु झील, दारमा घाटी (अनाम), कुथी यंगती घाटी (अनाम)अन्य आठ झीलों के नाम सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन ये उत्तरकाशी, बागेश्वर, पिथौरागढ़, और टिहरी जिलों में स्थित हैं। इन झीलों की ऊंचाई 4,351 से 4,868 मीटर के बीच है, और इनका क्षेत्रफल 0.02 से 0.50 वर्ग किमी तक है ।
ऐतिहासिक आपदाएँ
ग्लेशियर झीलों के फटने से उत्तराखंड में पहले भी भारी तबाही हो चुकी है। 2013 में केदारनाथ आपदा, जो चोराबारी ग्लेशियर झील के फटने से हुई थी, में हजारों लोगों की जान गई थी। इसी तरह, 2021 में चमोली जिले में रैणी तपोवन बाढ़ भी एक ग्लेशियर झील के फटने से आई थी । 2013 में सिक्किम में भी ऐसी ही एक घटना हुई थी, जिसने इस खतरे की गंभीरता को उजागर किया।
उत्तराखंड सरकार और NDMA ने इन झीलों के जोखिम को कम करने के लिए कई कदम उठाए हैं। उत्तराखंड स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट डिपार्टमेंट (USDMA) ने 2023 में सैटेलाइट इमेजिंग के माध्यम से इन 13 झीलों की पहचान की थी। एक बहुआयामी टीम गठित की गई है, जिसमें वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी और भारतीय रिमोट सेंसिंग संस्थान जैसे संगठनों के विशेषज्ञ शामिल हैं।
ये टीमें इन झीलों की नियमित निगरानी कर रही हैं और जोखिम मूल्यांकन कर रही हैं । 2025 में, उत्तराखंड सरकार ने उच्च जोखिम वाली झीलों के क्षेत्रीय सत्यापन के लिए टीमें गठित करने की घोषणा की, जो मितिगेशन उपाय सुझाएंगी । विशेषज्ञों ने निरंतर निगरानी और समय पर चेतावनी प्रणालियों की स्थापना की सिफारिश की है ताकि भविष्य में आपदाओं को रोका जा सके।
भविष्य का जोखिम
2023 में नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन, “एन्हांस्ड कम्युनिटीज एंड इन्फ्रास्ट्रक्चर इन द थर्ड पोल,” के अनुसार, ग्लेशियर झीलों के फटने से 6,353 वर्ग किमी क्षेत्र प्रभावित हो सकता है, जिसमें 55,808 इमारतें, 105 जलविद्युत परियोजनाएँ, 194 वर्ग किमी कृषि भूमि, 5,005 किमी सड़कें, और 4,038 पुल शामिल हैं । जलवायु मॉडल भविष्यवाणी करते हैं कि 2021-2050 के बीच पहाड़ी क्षेत्रों में तापमान में 1.6-1.9 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी, जिससे यह खतरा और बढ़ेगा।
एक गंभीर चिंता का विषय है। जलवायु परिवर्तन के कारण इन झीलों की संख्या और आकार में वृद्धि हो रही है, जिससे GLOF का जोखिम बढ़ रहा है। सरकार और विशेषज्ञों के प्रयासों के बावजूद, निरंतर निगरानी, जोखिम मूल्यांकन, और प्रभावी मितिगेशन रणनीतियों की आवश्यकता है। समय पर चेतावनी प्रणालियाँ और सामुदायिक जागरूकता इस खतरे को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।