देवभूमि में लगने वाले मेले यहां की पौराणिक संस्कृति की पहचान कराने के साथ ही इसके ध्वजवाहक भी होते हैं। बिशु, दीवाली, जागरा, मौण, जातर, शांत, भुण्डा, खलातरे, ठिरशु, नुणाई, फुलियात, देवलांग, चड़ेवली, खिला, मण्डावणा आदि पहाड़ी संस्कृति की अनमोल विरासत है। इनमें कुछ पर्व सालाना, महीने और मौसम के हिसाब से होते हैं तो कुछ वर्षों गुज़रने के बाद बमुश्किल सुनने देखने को मिलते हैं। इनमें कुछ ऐसे भी हैं जो अब इतिहास हो गए और आज सिर्फ गीतों और हारुलों में ज़िंदा हैं। करियर और अभिजात्य होड़ में इसके माईने और बड़ गए हैं। नई पीढ़ी के लिए यह तीज-त्योहार अजूबे से कम नहीं है। बिशु में खेला जाने वाला सांस्कृतिक धरोहर ठोडा ‘तीरंदाज़ी का खेल सह नृत्य’ है। इस दौर में सांकेतिक मात्र रह गया है।
ठोडा (Thoda) हिमाचल प्रदेश/ उत्तराखंड के महासू क्षेत्र का एक प्रभावशाली तीरंदाज़ी का खेल सह नृत्य है। यह तीरंदाजी के खेल के समान है जिसमें लक्ष्य नृत्य करता हुआ – मानव होता है। यह दो टीमों या दो प्रतिद्वंदी बीच यह खेला जाता है। अमूमन यह खेल सह नृत्य पारम्परिक उत्सव बिशु जो महासू क्षेत्र का एक लोकपर्व है इसमें खेला जाता है और दो दल अलग-अलग खूंद (राजपूतों का दाल) या शांठी और पांशी के रूप में हो सकते हैं। यहाँ एक बात कबीले गौर है कि एक ही दाल के दो धनुर्धर आपसे में नहीं भिड़ सकते। इस खेल के कुछ विशेष नियम भी होते हैं जैसे कोई भी धनुर्धर अपने प्रतिद्वंदी के घुटने से ऊपर प्रहार नहीं करेगा। जब तक एक खिलाडी अपनी हार न मान ले तब तक दूसरा हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
ठोडा दल की पौषक अनूठी और पारम्परिक प्राचीन संस्कृति की परिचायक है। खीन, काफ़ कपड़े से बनी इस पोषक का मुख्य आकर्षण गात्रा है। थोड़ा खेलने में प्रयोग होने वाली धनुष को धणु और तीर को शरी कहते है। जिसे स्थानीय कारगरों द्वारा ही बनाया जाता है। बजंतरियों (वाद्ययंत्रों को बजने वाले) की संख्या दर्जन के करीब होती है, जिनमें ढ़ोल, नगाड़े, दमाऊं, रणसिंघे, शहनाई वादक आदि शामिल होते हैं।
ठठोरियों के हक्कारे और जोश से नगाड़े की थाप पर एक ताल में थिरकता हज़ूम पूरे माहौल में उत्साह भर देता था। कंधे तक खींची गई प्रत्यंचा से छूटती शरी, गोली के माफ़िक छुलने वाले की पिंडली में लगने न लगने को प्रत्यक्ष देखने में जो रोमांच था वो आज टीवी में अख़्तर की फेंकी गेंद और रोहित-कोहली के छक्के में भी मिलना मुश्किल है। अपने रीति-रिवाज़ और सदियों से संस्करों में मिली अपनी बोली बोलने में भी हिचकने लगे हैं और बच्चों के साथ बोलने में गुरेज़ करने लगे हैं। मातृ भाषा सिखानी नहीं पड़ती आप बच्चों के साथ बोलते रहिए वो स्वंय सीख जाएंगे। शहरों के कोहरे और प्रदूषण की दौड़ में वेंटिलेटर पर ऑक्सीजन के सहारे सांसें गिन रही हैं।
मेले के दौरान खेले जाने वाले इस ठोडा खेल सह नृत्य और प्रयोग में लाये जाने वाले सामान को दैविक सम्पदा मन जाता है और खेल आरम्भ होने से पूर्व थोड़ा दाल अपने कुल देवता की पूजा-आराधना करता है। नाचते हुए हाथों में लहराया जाने वाला डांगरू या डांगरा (फरसे के आकर का शस्त्र) चांदी, पीतल या लोहे का बना होता है, जिसमें सजावट के लिए तरह तरह की डिजाइन डाली जाती है।
पुराना खेल होने के कारण इस पारम्परिक विरासत को पहले खेल से ज्यादा सांस्कृतिक नृत्य के रूप में जाना जाता था। खेल में जीत-हार के लिए कोई नियम पर आधारित अंकतालिका न होने के कारण विजेता का फैसला करना मुश्किल हो जाता था। समय के साथ-साथ ठोडा खेल नृत्य में भी बदलाव आया है और अब इसे मनोरंजन के रूप में खेल प्रतियोगिताओं में भी शामिल किया जाने लगा है। इस खेल को नया रूप और नई दिशा देने में हिमाचल के पूर्व आईएएस और साहित्यकार सीआरबी ललित का योगदान अहम् माना जाता है।
1986 में हिमाचल खेल अधिकारी एचसी पथिक के अथिक प्रयासों से ठोडा खेल का सञ्चालन खेल विभाग ने अपने हाथों में ले लिया। इस खेल के लिए विधिवत नियम बनाये गए और खिलाडियों के संख्या तय की गई। इसे वरिष्ठ और कनिष्ठ दो भागों में बाँट दिया गया। वरिष्ठ वर्ग की विजेता टीम को अर्जुन ट्रॉफी और कनिष्ठ वर्ग की विजेता टीम को अभिमन्यु ट्रॉफी से नवाजा गया। इसके बाद ठियोग, चौपाल आदि स्थानों पर ठोडा खेल का आयोजन किया जाने लगा लेकिन किन्हीं कारणों से आज यह प्रियोगिताएं बंद हो गई है। हिमाचल के सोलन में आज भी राज्य स्तरीय शूलिनी मेले के आखिरी दिन ठोडा खेल सह नृत्य होता है। इसके अलावा जिला देहरादून के जौनसार में प्रसिद्ध शहीद केसरी मेले में भी ठोडा खेला जाता है।
वर्ष 1981 में हिमाचल सिरमौर के पॉँवटा साहिब में तत्कालीन एसडीएम सीआरबी ललित ने ठोडा के खेल नियम और अंकतालिका बना कर इसे ने रूप दिया। इसके बाद ठोडा खेल में शामिल किया गया और इसे अंकों के आधार पर प्रतियोगिताओं में खेला जाने लगा है। खेल में शामिल दोनों टीमों के सदस्यों की टांगों में सफ़ेद कपड़े की पट्टी बंधी जाती है और शरी के अगले भाग पर स्याही लगा दी जाती है। टीम के सदस्य जब अपने प्रतिद्वंदी के पैर पर निशाना साधते हैं तो वहां स्याही का निशान पड़ जाता है, इन्हीं निशान के आधार पर टीम की हार जीत का फैसला किया जाता है।